वह नीता की विरूप आकृति, रोग और बोझ से शिथिल, लंगड़ा-लंगड़ा
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विरूप आकृति, रोग और बोझ से शिथिल, लंगडा-लंगडा कर चलते शरीर को अपनी
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विरूप आकृति के समीप रहने में जयराज को उबकाई और ग्लानि अनुभव हो रही
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सौजन्य के नाते उसे डाँडी के साथ चलना चाहिए था परन्तु उस शिथिल और विरूप आकृति के समीप रहने में जयराज को उबकाई और ग्लानि अनुभव हो रही थी।
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सौजन्य के नाते उसे डाँडी के साथ चलना चाहिए था परन्तु उस शिथिल और विरूप आकृति के समीप रहने में जयराज को उबकाई और ग्लानि अनुभव हो रही थी।
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वह नीता की विरूप आकृति, रोग और बोझ से शिथिल, लंगड़ा-लंगड़ा कर चलते शरीर को अपनी स्मृति के पट से पोंछ डालना चाहता था परन्तु वह बरबस आकर उसके सामने खड़ा हो जाता।
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वह नीता की विरूप आकृति, रोग और बोझ से शिथिल, लंगडा-लंगडा कर चलते शरीर को अपनी स्मृति के पट से पोंछ डालना चाहता था परन्तु वह बरबस आकर उसके सामने खडा हो जाता।